अजमेर (अजमेर मुस्कान)। अजयनगर स्थित पिपलेश्वर महादेव मंदिर मे सिंधी समाज का पर्व थदरी माता शीतला की पूजा कर हर्षल्ल्हास से मनाया। समाजसेवी नानक गजवानी ने बताया की पिपलेश्वर महादेव मंदिर में पंडित राजू शर्मा ओर सीमा शर्मा ने समस्त सिंधी समाज को पारंपरिक पूजा करके शीतला पूजन करवाया जिसमें अजमेर संभाग की सभी सिंधी जातीय वर्ग ने भर चर कर हिस्सा लिया।किसी भी धर्म के त्यौहार और संस्कृति उसकी पहचान होते हैं। त्यौहार उत्साह..उमंग व खुशियों का ही स्वरुप हैं। लगभग सभी धर्मों के कुछ विशेष त्यौहार या पर्व होते हैं, जिन्हें उस धर्म से संबंधित समुदाय के लोग मनाते हैं। ऐसा ही पर्व है सिंधी समाज का थदिड़ी। थदिड़ी शब्द का सिन्धी भाषा में अर्थ होता है..ठंडी..शीतलता..! रक्षाबंधन के आठवें दिन इस पर्व को समूचा सिंधी समुदाय हर्षोल्लास से मनाता है आज से हजारों वर्ष पूर्व
मुअनि जो दड़ोकी खुदाई में मां शीतला देवी की प्रतिमा निकली थी। ऐसी मान्यता है कि उन्हीं की आराधना में यह पर्व मनाया जाता है..थदिड़ी..पर्व को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियां भी व्याप्त हैं। कहते हैं कि पहले जब समाज में तरह-तरह के अंधविश्वास फैले थे तब प्राकृतिक घटनाओं को दैवीय प्रकोप माना जाता था जैसे समुद्रीय तूफानों का जल देवता का प्रकोप, सूखाग्रस्त क्षेत्रों में
इंद्र देवता की नाराजगी समझा जाता था। इसी तरह जब किसी को माता(चेचक) निकलती थी तो उसे दैवीय प्रकोप से जोड़ा जाता था, तब देवी को प्रसन्न करने हेतु उसकी स्तुति की जाती थी और थदिड़ी पर्व मनाकर ठंडा खाना खाया जाता था इस त्यौहार के एक दिन पहले हर सिन्धी परिवार में तरह-तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं। जैसे कूपड़ कोकी सूखी तली हुई सब्जियां
भिंडी, करेला, आलू, रायता, दही-बड़े, मक्खन आदि। आटे में मोयन डालकर शक्कर की चाशनी से आटा गूंथकर कूपड़ बनाए जाते हैं। मैदे में मोयन और पिसी इलायची व पिसी शक्कर डालकर ॻचु का आटा गूंथा जाता है। अब मनचाहे आकार में तलकर ॻचु तैयार किए जाते हैं। रात को सोने से पूर्व चूल्हे पर जल छिड़क कर हाथ जोड़कर पूजा की जाती है। इस तरह चूल्हा ठंडा किया जाता है।दूसरे दिन पूरा दिन घरों में चूल्हा नहीं जलता है एवं एक दिन पहले बनाया जाता है सप्तम दिन में ठंडा खाना ही खाया जाता वहां मां शीतला देवी की विधिवत पूजा की जाती है। इसके बाद बड़ों से आशीर्वाद लेकर प्रसाद ग्रहण किया जाता है। बदलते दौर में जहां शहरों में सीमित साधन व सीमित स्थान हो गए हैं। ऐसे में पूजा का स्वरुप भी बदल गया है अत: आज-कल घरों में ही पानी के स्रोत जहां पर होते हैं वहां पूजा की जाती है। इस पूजा में घर के छोटे बच्चों को विशेष रुप से शामिल किया जाता है और मां की स्तुति गान कर उनके लिए दुआ मांगी जाती है कि वे शीतल रहें व माता के प्रकोप से बचे रहें। इस दौरान ये पंक्तियां गाई जाती हैं :- ठार माता ठार पहिंजे ॿचड़नि खे ठार..माता अॻे बि ठारियो थई हाणे..बि ठार..इसका तात्पर्य यह है कि हे माता ! मेरे बच्चों को शीतलता देना। आपने पहले भी ऐसा किया है आगे भी ऐसा करना...। इस दिन घर के बड़े बुजुर्ग सदस्यों द्वारा घर के सभी छोटे सदस्यों को भेंट स्वरुप कुछ न कुछ दिया जाता
है जिसे खर्ची कहते हैं। थदिड़ी पर्व के दिन बहिन और बेटियों को विशेष तौर पर मायके बुलाकर इस त्यौहार में शामिल किया जाता है। इसके साथ ही उसके ससुराल में भी भाई या छोटे सदस्य द्वारा सभी व्यंजन और फल भेंट स्वरुप भेजे जाते हैं इसे 'थदिड़ी का ॾिणु' कहा जाता है।
परंपराएं और आस्था अपनी जगह कायम रहती हैं बस समय-समय पर इसे मनाने का स्वरुप बदल जाता है। यह भी सच है कि त्यौहार मनाने से हम अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं व सामाजिक एकता भी कायम रहती है। दैवीय शक्ति से जुड़ा *थदिड़ी पर्व' हजारों साल बाद भी सिन्धी समाज का प्रमुख त्यौहार माना जाता है। इसे आज भी पारंपरिक तरीके से मिलजुल कर मनाया जाता है। आस्था के प्रतीक यह त्यौहार सिंधी समाज अपने परिवार के साथ मनाता है।
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